Friday, July 15, 2011

"स्ट्राबेरी फ्लेवर "




राजेंद्र प्लेस पर सीट मिली, शनिवार को भी आजकल मेट्रो में इतनी भीड़ रहने लगी है कि सीट मिलना दूभर। कॉमन कम्पार्टमेंट में तो फिर भी कोई लड़की देख कर सीट दे दे पर लेडीज़ कम्पार्टमेंट में तो भूल ही जाओ। और फिर ये ज़रूरी तो नहीं कि शनिवार को मेरी तरह किसी और का हाफ-डे न होता हो.., उस पर आजकल हर कोई मेट्रो से ही सफर करना पसंद करता है।

गर्मी कुछ इस कदर परवान चढ रही है कि लगता है एक रोज सब कुछ मोम की तरह पिघल जायेगा। जून की तपती गर्मियों के दिन थे। मैंने घडी देखी तो साढे तीन बज चुके थे, सूरज का तेज अपनी प्रखरतम सीमा लाँघ रहा था शीशे से आती धूप तभी तक अच्छी लगती है जब तक मेट्रो में ए.सी. ने टेम्प्रेचर बाँध रखा है जहाँ दरवाज़े से बाहर कदम रखो वहीँ धूप के गुस्से का शिकार होना पड़ता है। शरीर में एक चुनचुनाहट भरी बेचैनी समा जाती है।

हफ्ते भर के इन्तेज़ार के बाद छुट्टी मिली तो कुछ राहत महसूस हुई । यूँ कोई खास फायदा नहीं होता शनिवार को हाफ-डे से, बल्कि देखा जाये तो मुसीबत और हो जाती है, दोपहर में ऑफिस से निकलना कोई आसान काम हैं भला! कहने को हाफ –डे है पर घर पहुँचते पहुँचते तीन-चौथाई दिन तो निकल जाता है, और घर पहुँचो तो थकान के मारे जो नींद आती है जब आँख खुले तो अँधेरा पसरा हुआ होता है । हाँ ये कह सकते हैं की शनिवार को सोने का मौका मिल जाता है तो रविवार को अपने काम निबटाए जा सकते हैं ।

तीन महीने से यही सब चला आ रहा है, पूरे हफ्ते शनिवार का इन्तेज़ार करो और हर शनिवार गर्मी को कोसते हुए घर जाओ । अजीब जिंदगी है, कुछ नहीं है तो शिकायत, जो है उस से भी शिकायत। गर्मी हो तो शिकायत। ठण्ड हो तो शिकायत। बरसात में भी शिकायत, और बारिश न हो तो शिकायत। जिंदगी इतनी शिकायती क्यूँ होती है?

तीन महीने पहले ये शिकायत थी की आखिर कहाँ जा रही है जिंदगी, अपने कैरियर को कब तक आखिर खराब करूँ सोच कर नौकरी बदल ली, ह्यूमन रिसोर्स के बेसिक सीखने के लिए रिक्रूटमेंट में आ तो गई पर काम का दबाव इतना है कि शाम तक जैसे जान निकल जाती है। ऑफिस से निकलो तो आँखें यों दुखने लगती हैं कि जी चाहता है निकाल के पर्स में रख लूँ.. काश ! हम ऐसा कर सकते, शरीर के जिस हिस्से में दर्द हो उसे निकाल के अलग कर सकते और फिर जब दर्द खत्म हो जाए तो फिर से उसे शरीर में वैसे ही पहले की तरह जोड़ लेते.. कितने लोगों के मर्ज़ आसानी से ठीक हो जाते, जहाँ दर्द है वो हिस्सा डॉक्टर को दे आते और जब वक्त मिले उठा कर ले आते.. मानो डॉक्टर ना हुआ मेकैनिक हो गया.. और शरीर कोई मशीन। मशीन से कम भी नहीं रह गया। मशीन के भी काम करने की एक लिमिट होती है। बंधे निर्धारित घंटे होते हैं उसे चलाने के भी। लेकिन शरीर ये तो बेचारा सुबह से रात तलक यूँ ही भागता दौड़ता रहता है। साढ़े सात बजे घर से निकलने के लिए पाँच बजे उठो। ताकि साढ़े नौ तक किसी भी हालत में ऑफिस पहुँचा जा सके। चार घंटे के रोज सफर और उस पर थका देने वाली जॉब। ऐसा लगता है जिंदगी अंग्रेजी और हिंदी में दोनों तरह से बस सफर ही कर रही है। वो भी बेमतलब। और उस बेमतलब सफर के बाद घर पहुँचो तो माँ ये भी चाहती है कि रसोई में हाथ बँटाऊ। रात को बिस्तर भी कहता है क्या ज़रूरत है इतनी भाग दौड की? ये सवाल तो मैं भी पूछती हूँ खुद से, लेकिन जवाब मिलने से पहले नींद अपनी बाहों में कैद कर लेती है। मगर नींद से इश्क आखिर कब तक चलेगा। दुश्मन अलार्म चिल्ला चिल्ला कर रोज मीठी नींद के सपनों को कर्कशता से रौंद देता है। और फिर से वही रूटीन, पहले रिक्शा, फिर मेट्रो, फिर ऑफिस, थकान, घर के खटराग... उफ़ क्या से क्या सोचने लगती हूँ मैं अक्सर। सोच के भी पंख होते हैं शायद, उड़ते हुए कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है।

बस दो मिनट में पहुँच रही हूँ, आ रही हूँ न बाबू...

मेरे सामने खड़ी लड़की किसी से फोन पर बतिया रही थी, एक पल उसके चेहरे पर नज़र गई, उसके चेहरे पर एक सुखद मुस्कान थी जैसे किसी आत्मीय से मिलने जा रही हो।

इतने सुकून से सराबोर चेहरे कहाँ दिखते हैं आजकल । ऐसा लगता है एक क्रूर उदासी चिपक गई है लोगों के नकूश पर।

सुबह सुबह ही लोगों के चेहरे पर जहाँ एक ताज़ी उमंग होनी चाहिए वहीँ रोज देखती हूँ कितने मिश्रित भाव होते हैं, कहीं लोग अपने ऑफिस के बारे में बुराइयाँ करते हुए दिखते हैं तो कहीं कोई अपने प्रेमी - प्रेमिका एक दूसरे से झगड़ते हुए । लेडीज़ कम्पार्टमेंट में लडकियाँ बहुतायत में चेतन भगत और शिव खेडा टाइप किताबों में सर लगाए रहती हैं और उम्रदराज़ औरतें ज्यादातर ऊंघते हुए दिखाई देती हैं। ऐसा लगता है दिल्ली शहर अब थक चला है। चेहरे इतने मुर्दा हैं कि उन पे कोई रंग कोई एहसास नहीं है। यहाँ लोग मौका मिलते ही सुस्ताने लगते हैं । इतनी भरपूर उदासी है कि कई किलो उमंग बिखेर दो माहौल में तो भी ये उदासी न जाए।

नौ साल हो गए नौकरी करती हुए कभी कभी लगता है मैं भी थक गई हूँ। अब शादी- वादी कर लूँ और शांति से अपना घर संभालूं । फिर सोचती हूँ अभी तो कैरियर ने सही राह पकड़ी है अभी तो और संघर्ष करना है। इसी लिए तो भाग रही हूँ इस थके हुए फिर भी भागते शहर की उदास दौड में।

सामने खड़ी लड़की भी शायद बहुत जल्दबाजी में घर से निकली थी, तभी उसकी जींस की जेब से लाइनिंग किसी शैतान बच्चे की तरह सर निकाले झाँक रही थी, अक्सर जब हम जल्दबाजी में तैयार होते हैं तो यही होता है, सुबह की अफरा-तफरी में मैं भी जब घर से निकलती हूँ तो जेब में हाथ डालने पर मुझे भी ये एहसास होता है कि मेरी जेब की लाइनिंग उछल के बाहर आने को बेताब है।

मेरा मन हुआ कि उसकी जेब की लाइनिंग को ऊँगली से भीतर कर दूँ, जैसे दो सहेलियाँ अक्सर एक दूसरे के कपडे ठीक किया करती हैं। गिरते दुपट्टे संभालती हैं। चुपके से एक दूसरे के कंधे पर से झांकती स्ट्रैप छुपाया करती हैं। फिसलते क्लचर्स और हेयर पिन को दुरुस्त करना, इत्यादि. किया करती हैं।

लेकिन मैं तो उसे जानती भी नहीं, और फिर मैं तो अब जब दोस्त को दोस्त कहने से भी सहम जाती हूँ । हम अक्सर जिस रिश्ते को नाम नहीं दे पाते उसे दोस्ती का लिबास पहना देते हैं.. कितना अच्छा होता अगर हर रिश्तों का कोई नाम ही न होता। जैसे लोगों के नाम रखे जाते हैं, रिश्तों के नाम न रखे जाते। क्या इतना ज़रूरी है? अगर हम उन्हें स्वछंद उड़ने दें तो कितना अच्छा हो। और फिर एक शख्स जिसे हम दोस्त कहते हैं जब वो दोस्त नहीं रहता तो हम उसे क्या कहें?..

पौने चार बज रहे थे, धूप में अब भी कोई बदलाव नहीं, वही क्रूर भाव। मुझे नींद आ रही थी, मैंने एक उदास जम्हुआई ली और आँखें मूँद ली।

मैंने कभी सोचा नहीं था कि उस से मुलाक़ात होगी। मुझे लगा था मैं उस से बहुत दूर निकल आई हूँ, और कम से कम इस जन्म में बिना किसी ठोस पहल के उसका सामना नहीं होगा।.... और पहल मैं करना नहीं चाहती थी! जब वो सामने आई तब तक उसके लिए मेरे एहसास इस कदर तितर-बितर हो चुके थे कि एक पल के लिए उन्हें बटोरना असंभव था।

उसने मेरे हाथ को छुआ, मैं आँखें खोलती हूँ, वो मुस्कुराती है। उसकी क्रूर रहस्यमयी मुस्कराहट मुझे भीतर तक छील देती है! मैं जल्दी से एक नकली मुस्कान उठा कर पहन लेती हूँ। मैं मुस्कुराती हूँ, नहीं.. मैं कुछ ज्यादा, शिद्दत से मुस्कुराती हूँ। उस से भी ज्यादा खुश दिखने की कोशिश करती हूँ, लेकिन उसके सामने खुश होकर भी अपने को भीतर से बहुत छोटा महसूस करती हूँ। खुद से एक बार फिर और कमज़ोर हो जाती हूँ। लेकिन अपनी इस कमजोरी को छुपाने के लिए मैं उठ कर उसे गले लगाती हूँ, इस औचक मुलाक़ात से मैं विस्मित हूँ ऐसा अभिनय करती हूँ। पर इस खुशी की आड में उसे बस एक बार देख कर ही मैं अपने भीतर किसी कोने में, कहीं छुप कर बहुत जोर से चिल्लाकर, टूट कर, बिखर कर, बिलख कर रोती हूँ, क्यूंकि एक रोज मैंने उसे बहुत अपना पाया था, बहुत मान दिया था, बहुत प्रेम किया था, एक रोज वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी..दोस्त..।

कैसी है? उसने पूछा। उसकी आवाज़ की चहक शीशे के महीन चूरे सी चुभती है।

मैं.. बहुत अच्छी हूँ, तू कैसी है?

एक दम मस्त

यहाँ कैसे?, मैंने पूछा। शायद मुझे ये सवाल नहीं पूछना था, लेकिन अब पूछ लिया तो पूछ लिया।

नीरज की शादी है, लहंगा ऑर्डर किया था, उसी के ट्रायल के लिए करोलबाग गई थी, परसों मिल जायेगा।

‘अगला स्टशन मोती नगर है, दरवाज़े बायीं तरफ खुलेंगे, कृपया सावधानी से उतरें’ दोनों आवाजें मेरे कान में एक साथ पड़ी.. और गूंजने लगी । “नीरज की शादी है, और अगला स्टेशन मोती नगर है।”

अच्छा, नीरज की शादी हो रही है, वाह..ग्रेट न्यूज़। कब है, मैंने पूछा।

अगले हफ्ते..। सुन मैंने ब्लू कलर का लहंगा लिया है, साथ में डायमंड ज्यूलरी बुआ जी ने दिलाई है,.. आखिर इकलौती भाभी हूँ, शादी में सबसे स्पेशल मुझे ही लगना है, उसने इतराते हुए कहा। उसके चेहरे के तेवर बता रहे थे कि वो कितनी खुश है और मुझे उसकी खुशी से जलन हो रही थी।

हाँ, ये तो है भई, देवर की शादी है आखिर.. मैंने कहा।

उसके चेहरे पर आई चमक से मेरी आँखें जलने लगी। उसकी आँखों में भरे लाखों तारे मुझे अपनी ग़ुरबत का एहसास कराने लगे।

दीप, मैं आपको भाभी कह सकता हूँ ना? नीरज हर बात में पहले अश्योरेंस लेता था।
हाँ तो भाभी, इस मस्त सी कोल्ड कॉफी के बदले में मैं आपको ये वादा करता हूँ कि मेरी शादी में आपको ब्लू कलर की साडी मैं दिलाऊंगा..

थैंक्यू इन एडवांस देवर जी और हम खिलखिला कर हँसे थे।

नीरज प्रेम का छोटा भाई था। लेकिन लगता था जैसे नीरज बड़ा हो, पहली बार मैं भी धोखा खा गई थी। कोई भी ऐसा सोच सकता था। उसका स्वाभाव ही ऐसा था प्रेम से ज्यादा समझदार और ज़िम्मेदार। जिम्मेदारी का एहसास चेहरे से झलकता था। स्कूल खत्म करते ही नौकरी करने लगा था कहता था पापा आर्मी में हैं तो क्या? मुझे भी पापा की तरह अपना नाम कमाना है ताकि कल पापा को मुझपे गर्व हो। घर वाले उसकी तारीफ करते नहीं अघाते थे। खास कर बुआ जी। उनका तो फेवरेट था नीरज, और प्रेम की जान। हर काम उस से सलाह लेके करता था। और नीरज मुझसे।

पहली बार से ही हम दोनों में खूब पटती थी। कभी कभी प्रेम भी नाराज़ हो जाता था कि मैं घर आती हूँ तो उसे भूल ही जाती हूँ। हम उम्र थे न हम दोनों। मैंने नीरज को अपनी छोटी बहन रूमी के लिए पसंद किया था। फिर जब पता चला कि नीरज किसी वर्तिका नाम की लड़की से प्रेम करता है तो मैंने चाह कर भी अपनी इच्छा ज़ाहिर नहीं की। उसने मुझे वर्तिका से मिलवाया भी। वह मुझे बहुत पसंद आई थी। बहुत मासूम और सीधी सी। बड़ी बड़ी काली आँखें, गोरा रंग, छरहरा बदन और आवाज़ इतनी मीठी कि किसी के भी दिल में घर कर जाए मैंने नीरज से वादा किया था कि उसकी शादी में सबसे ज्यादा मैं नाचूंगी। मुझे याद है जब मैंने उसे कहा कि नाचूंगी तो मैं ज़रूर पर साड़ी उसे ही दिलानी होगी... इस पर उसने कहा था हाँ क्यूँ नहीं, आखिर ले-दे के आप ही तो मेरी इकलौती भाभी होंगी, आपके ही तो नखरे उठाने हैं।

सोच के रेशे मेरे होठों पर एक पल बिखर गए और दूसरे ही पल उड़ गए।

बुआ जी कैसी हैं? मैंने पूछा। और तन्नू ? अब तो उसकी ऍम.बी.ए. पूरी हो गई होगी ना? तन्नू उसकी बहन थी, उसे देखे हुए एक अरसा हुआ।

हाँ, तन्नू बंगलुरु में है, सोमवार को आ रही है, उसने कहा।

“अब तक वहीँ है?”

“हाँ ऍम.बी.ए. के बाद वहीँ जॉब मिल गया था पर शादी के बाद तो यहीं रहेगी । सोमवार तक पहुँच जायेगी।

वर्तिका तो बहुत खुश होगी? मैंने पूछा। ‘बहुत दिन हो गए उस से मिले हुए। लास्ट टाइम शायद भरद्वाज कि शादी पर मिले थे हम। तू भी तो थी वहाँ । कितनी प्यारी लग रही थी वह ।“ मैं न जाने क्या क्या बोलती कि रितु ने बीच में बात कटते हुए कहा,” वो क्या है दीप कि..” वह थोडा ठहरी । “ एक्चुली, नीरज की शादी तन्नू के साथ हो रही है।”

मैं उसका चेहरा देखती रह गई. मैं हैरान रह गई सोच कर कि कमाल हैं दोनों भाई एक जिसे अरेंज मैरिज करनी थी उसने लव मैरिज की और जिसे लव मैरिज करनी थी वो अरेंज कर रहा है.. वो भी रितु की बहन से.. उसने मेरा शशोपंज भाँप लिया, झट से बात बदलती हुई बोली तन्नू के लिए पिंक कलर का जोड़ा लिया है, नीरज का फेवरेट कलर है ना, “और वैसे भी आजकल शादी में मरून कलर बहुत औड फैशन लगता है, नहीं?

हाँ नीरज को पिंक बहुत पसंद है, मुझसे और कुछ कहते न बना।

अचानक वर्तिका का उसका मासूम चेहरा मेरे सामने आ गया, बहुत अपना लगने लगा। आखिर ऐसी प्यारी लड़की को छोड़ने के पीछे क्या कारण रहा होगा। ऐसा लगा जैसे उसके आँसू मेरे मन से बह रहे हैं और मैं उसके गम में डूबी जा रही हूँ, जी में आया उसे बढ़ के गले लगा लूँ फिर अचानक वो गायब हो गई.. सामने रितु खड़ी मुस्कुरा रही थी और मैं उसकी इस रहस्यमयी मुस्कराहट से छलनी हुई जा रही थी। वो हमेशा से ऐसी ही थी, रहस्यमयी। अपने काम निकालने के लिए लोगों को कैसे इस्तेमाल करना है अच्छे से जानती थी।

अपना नंबर दे न, मैं तुझे शादी का कार्ड भेजूंगी, आना ज़रूर..

हाँ, हाँ, क्यों नहीं, मैंने कहा।

उसने अपने बैग से फोन निकाला। मुझे हँसी आई, आज भी वो बेसिक फोन इस्तेमाल करती है। उसके हाथों पर नज़र गई, आधी उतरी नेलपॉलिश और टूटे हुए नाखून देख कर मैं एक पल झूठे गर्व से भर गई, आज भी इसे सेंस नहीं है। क्या देख कर प्रेम ने शादी की इस से। .. मेरी आँखों के आगे प्रेम का चेहरा नाच गया और अचानक गर्व की जो प्रतिमा मुझमें आकार ले रही थी, टूट कर चकनाचूर हो कर, बिखर गई।

और कुछ हो न हो इसके पास किस्मत है, और एक मजबूर उदासी मेरे चेहरे पर पुत गई।

अच्छा, चल, मुझे अगले स्टेशन पर उतरना है, उसने कहा। अचानक एक हड़बड़ी से वह घिर गई.

तिलक नगर?

हाँ। मम्मी से मिलना है.. प्रेम मेट्रो से पिक करेगा मुझे, तू भी चल, प्रेम तुझसे मिलके खुश होगा।

नहीं यार, ऍम सो टायर्ड.. फिर मिलूंगी, उसे मेरा हाई कहना। दरअसल मैं प्रेम से मिलना नहीं चाहती थी. जिस रिश्ते के सभी किवाड़ मैं बहुत पहले बंद कर चुकी हूँ, दोबारा उस के आस पास से भी गुज़ारना मेरे लिए कई नए असमंजस खड़े कर सकता था. मैंने बहाना बनाना ठीक समझा. शायद वो भी यही चाहती थी तभी उसने कहा.

हाँ, श्योर चल बाय..

बाय।

दरवाज़ा खुला और वो बाहर चली गई.

उसे मना करके मैं’ खुद से उलझ गई। उसके जाने के ठीक बाद मैं भी उतर गई। वह मुझसे कुछ दस –बारह कदम की दूरी पर चल रही थी. मुझे हँसी आई, आज भी उसकी वही चाल है, एडियों को ज़रा उचकाते हुए फुदकना, लेकिन मैं डर रही थी कि अगर उसने पलट के देखा तो मैं उसे क्या जवाब दूंगी। मैं बहाना सोचने लगी लेकिन उसने पलट कर नहीं देखा और सीढियां उतर गई। मैंने ऊपर से झाँक के नीचे दरवाज़े की ओर देखा तो प्रेम खड़ा था अपनी बाईक के साथ सट कर। इसी बाईक से मुझे कई बार चोट लगी है। कहता था ये तुम्हारी सौतन है। चार साल बाद उसे देख रही थी। ठीक इसी तरह वो रोज मेरे ऑफिस के बाहर खड़ा रहता था, ठीक इसी तरह मेरा घंटों इन्तज़ार करता था, बिना किसी शिकायत के। उसका ऑफिस साकेत में था। वहाँ से पांच बजे निकल कर संत नगर तक पहुँचने में बमुश्किल बीस मिनट लगते थे उसे। मैंने कभी घडी नहीं देखी, रोज लेट निकलती थी ऑफिस से, पर वो रोज एक मीठी सी मुस्कान के साथ बाहें फैलाये मेरा स्वागत करता था। और इसी बाईक पर हम रोज घंटा भर चाणक्यपुरी के चक्कर लगाया करते थे। फिर वह मुझे घर के पास छोड़ दिया करता था।

मैंने महसूस किया, बीते हुए उन दिनों को आज मैं किसी गैर की नज़र से देख रही थी और मुझे अच्छा लगा कि उन दोनों को देख कर मुझे बुरा नहीं लग रहा.

वो प्रेम के पास पहुँची और चुप चाप बाईक पर बैठ कर चली गई। शायद उस ने प्रेम से मेरा ज़िक्र भी नहीं किया। मैं आखिरी पल तक उन्हें जाते हुए निहारती रही। मेरी नज़रे उनकी पीठ को सहलाती रही। यूँ ही प्रेम को जाते हुए कई बार देखा होगा मैंने। मेरी नज़रें उसकी पीठ को यूँ ही अक्सर सहलाती भी रही होंगी, शायद उसे भी इस बात का एहसास होगा।

अगली मेट्रो आ गई, मैंने जैसे ही मेट्रो में प्रवेश किया चेहरे पर ठंडी हवा ने स्पर्श किया।

ऐसा लगा जैसे किसी वक्त के झोंके ने मुझे फिर से चार साल पीछे धकेल दिया है. वही पुराने दिन फिर से मेरे सामने आ कर खड़े हो गए. रितु मेरी कॉलेज की दोस्त थी. पहले ही दिन कॉलेज में सीट को लेकर उस से अनबन हो गई थी. फिर धीरे धीरे दोस्ती. उसके स्वभाव को लेकर मैं अक्सर उलझन में पद जाती थी. पहले ही दिन मुझे वह रहस्यमयी लगी. बातों की दिशा मोड़ने की कला में दक्ष थी. जहाँ लगता कि उसकी बातें अपनी दिशा खो रही हैं वहीँ कहाँ से नई बात के सिरे जोड़ लेती समझ नहीं आता था. जबकि मैं हमेशा से यही मानती थी कि शब्दों के सिरे खुले नहीं छोड़ने चाहिए. मेरा व्यवहार उस से बिलकुल अलग था. फिर भी हम दोनों बहुत अच्छे दोस्त थे. कभी किसी विषय में मैं उस से आगे निकल जाती तो उसके हाव भाव बदल जाते. मसलन वो अपनी खूबसूरती की तारीफ करते नहीं थकती थी, लेकिन जब कोई मेरी तारीफ कर देता था तो उसका चेहरा उतर जाता था. मुझे उस के स्वभाव पर हमेशा हँसी आती थी. कभी उसने कहा नहीं पर हमेशा मुझे लगा कि वो मेरी खुशी में खुश नहीं होती थी.

जब उसे प्रेम और मेरे बारे में पता चला तो कैसे कैसे तो भाव उमड़ आये थे उसके चेहरे पर. फिर अपनी बात बदलते हुए उसने कहा भी था ‘अरे तूने तो मेरा सबसे अच्छा दोस्त चुरा लिया, ये गलत है’, फिर हँसने लगी. कहने लगी, तुझे वो झल्लू कैसे पसंद आ गया.. वैसे सही है तुम दोनों हो ही एक जैसे.. प्रेम को अक्सर वो ‘परेशान आत्मा’ कह कर चिढाया करती थी. कभी कभी मुझे गुस्सा आता पर मैं कह नहीं पाती थी, शायद इसलिए भी कि प्रेम ने कभी उसकी किसी बात का बुरा नहीं माना. जब तक मैं उसके साथ रही तब तक तो कम से कम उसने मेरे सामने कभी प्रेम को किसी भी प्रकार से इज्ज़त नहीं दी.

कभी कभी मुझे वह अच्छी नहीं लगती थी. फिर मैं सोचती थी जैसी भी है, है तो मेरी ही दोस्त. अपनी चीज़ को कोई बुरा तो नहीं कहता न. और ज़रूरी तो नहीं कि सब आप जैसे ही हों. प्रेम से मेरा परिचय भी रितु ने ही कराया था. प्रेम के जन्मदिन पर वो मुझे अपने साथ ले गई थी. ये प्रेम और उसके परिवार से मेरा पहला परिचय था. प्रेम और रितु स्कूल में साथ पढते थे और घर पास होने की’ वजह से भी दोनों की अच्छी दोस्ती थी. कभी कभार मैं उन दोनों के बीच खुद को अजनबी महसूस करने लगती थी. उसका अपना एक फ्रेंड सर्कल था जिसमें अक्सर मैं खुद को अकेला पाती थी. शायद मैं उन’ जैसी नहीं थी, शुरू से ही मेरे घर का माहौल ऐसा रहा जिसकी वजह से मैं ज्यादा दोस्त नहीं बना पाई. पापा के सख्त निर्देश थे कि दोस्ती घर के बाहर ही रखनी चाहिए. बस स्कूल में जो साथ में लडकियां पढ़ती थी उन्ही तक मेरा दायरा सीमित रहा.. कॉलेज में जब रितु से मुलाक़ात हुई तो वो मुझे किसी चुलबुली तितली जैसी लगी. दुनिया से लापरवाह. रोज लेट उठती थी, फिर कॉलेज भी लेट आती थी, लेक्चर मिस करना.कैंटीन में घंटो अड्डेबाजी करना, लड़कों से दोस्ती रखना. घूमने फिरने जाना. मुझे याद है वो कोई भी नई फिल्म नहीं छोडती थी. जो सब उस वक्त मैं सोचने से भी घबराती थी. वो अपनी जिंदगी को मस्ती में जीती थी. शायद इसी लिए मैं उसके साथ रहना पसंद करती थी.

इसके विपरीत प्रेम बहुत शांत और सरल था उसकी आँखों में एक ठहराव था स्टेशन से सीढियाँ उतरते हुए प्रेम का चेहरा मेरी आँखों के सामने घूम रहा था उसके हाथ सर्दियों में हमेशा नर्म रहते थे उसके होंठ बहुत ठन्डे और मीठे थे। जब वो मुझे चूमता था तो आईसक्रीम सा एहसास होता था।

गर्मी वैसी ही थी, जैसी पिछले शनिवार को थी बाहर रिक्शे वालों की लाइन लगी हुई थी नीम्बू पानी वाले के आगे एकाध लोग. वहीँ आइसक्रीम वाला भी खड़ा था एक पल मैं ठिठकी फिर बढ़ चली, आइसक्रीम वाले से कहा, “भैया.. एक आइसक्रीम देना..”

उसने पूछा, “कौन सा फ्लेवर मैडम?”


:)

यह कहानी "नया ज्ञानोदय" के जुलाई अंक में भी प्रकाशित हुई है

Monday, September 27, 2010

कहानी इश्क और हया की.. भाग दो.


क्या है रिश्ता इश्क का हया से
हया जो इश्क की कुछ नहीं लगती
क्यूँ बावरी है
चल रही है राह पे उसकी
जिस दिन इश्क ने
हया का माथा चूम लिया
उस दिन से आँखों की टहनी पे
अश्कों के फल नहीं लगते
उस दिन से ख़्वाबों का
खारापन गया
उस दिन से महक रही है
यादों की संदल
और हया मदहोश है
पगली ये जानती है
ये अकीदत जान ले के जायेगी
मगर फिर भी
चिराग बुझने से पहले
जो एक पल जी भर के जीता है
वही एक पल मिला है
अब हया को
इसमें जान भी जाए
तो येः सौदा सस्ता..!!
..

कहानी इश्क और हाय की.. भाग एक


पलकें झुकाए
खुद को सौ पर्दों में छुपाये
हया एक रोज़ जो गुज़री
हुस्न की गली के चौक से
देखा, चौराहे पर
सर घुटनों में दबाए
इश्क़ फटेहाल बैठा है
था उसको बहुत गुरूर लेकिन
जिस कदर हुस्न ने तोड़ा उसको
लिए टूटी चाहत का मलाल बैठा है
मायूस अब भी सोचे है
शायद.., तरस आ जाए
इस हालत पे हुस्न को..
इश्क़ की मासूमियत पर
हया पिघल गयी
हाथ थाम इश्क़ का
साथ उसको ले चली
इश्क़ की मासूमियत का
हया पर ऐसा जादू चला
हया फिर उसी और साथ बह चली
जहाँ जहाँ इश्क़ चला
सोच में डूबी हया
यह सोच कर घबराए
इश्क़ का जादू यही
कहीं उसे खुद से ना ले जाए
इश्क़ से इश्क़ होने लगा है
हया को सोच के हया आए...!!